एक सीमित क्षेत्र में बोले जानेवाले भाषा के स्थानीय रूप को ‘बोली’ कहा जाता है जिसे ‘उप भाषा’ भी कहते हैं। कहा गया है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले, पाँच कोस पर बानी। हर पाँच-सात मील पर बोली में बदलाव आ जाता है। भाषा का सीमित, अविकसित तथा आम बोलचाल वाला रूप बोली कहलाता है जिसमें साहित्य रचना नहीं होती तथा जिसका व्याकरण नहीं होता व शब्दकोश भी नहीं होता, जबकि भाषा विस्तृत क्षेत्र में बोली जाती है, उसका व्याकरण तथा शब्दकोश होता है तथा उसमें साहित्य लिखा जाता है। किसी बोली का संरक्षण तथा अन्य कारणों से यदि क्षेत्र विस्तृत होने लगता है तथा उसमें साहित्य लिखा जाने लगता है तो वह भाषा बनने लगती है तथा उसका व्याकरण निश्चित होने लगता है।
हिंदी की बोलियाँ
हिंदी केवल खड़ी बोली (मानक भाषा) का ही विकसित रूप नहीं है बल्कि जिसमें अन्य बोलियाँ भी समाहित हैं जिनमें खड़ी बोली भी शामिल है। ये निम्न प्रकार हैं
1. पूर्वी हिंदी जिसमें अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी शामिल हैं।
2. पश्चिमी हिंदी में खड़ी बोली, ब्रज, बाँगरू (हरियाणवी), बुन्देली तथा कन्नौजी शामिल हैं। 3. बिहारी की प्रमुख बोलियाँ मगही, मैथिली तथा भोजपुरी हैं।
4. राजस्थानी की मेवाड़ी, मारवाड़ी, मेवाती तथा हाड़ौती बोलियाँ शामिल हैं। कुछ विद्वान मालवी, ढूंढाडी तथा बागडी को भी राजस्थानी की अलग बोलियाँ मानते है।
5. पहाड़ी की गढ़वाली, कुमाऊँनी तथा मंडियाली बोलियाँ हिंदी की बोलियाँ हैं।
इन बोलियों के मेल से बनी हिंदी को संविधान सभा ने 14 सितम्बर, 1949 को भारत की राजभाषा स्वीकार किया। विभिन्न बोलियों के मेल से बनी हिंदी की भाषाई विविधता के कारण ही हिंदी के क्षेत्रीय उच्चारण में विविधता पाई जाती है।
हिंदी भाषा और व्याकरण
हिंदी व्याकरण हिंदी भाषा को शुद्ध रूप से लिखने और बोलने संबंधी नियमों की जानकारी देनेवाला शास्त्र है। किसी भी भाषा को जानने के लिए उसके व्याकरण को भी जानना बहुत आवश्यक होता है। हिंदी की विभिन्न ध्वनि, वर्ण, पद, पदांश, शब्द, शब्दांश, वाक्य वाक्यांश आदि की विवेचना
तथा उसके विभिन्न घटकों-प्रकारों का वर्णन हिंदी व्याकरण में किया जाता है। हिंदी व्याकरण को मोटे तौर पर वर्ण-विचार, शब्द-विचार, वाक्य विचार आदि तीन वर्गों में विभाजित कर इनके विभिन्न पक्षों पर विचार किया जाता है।